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 ( Online- ISSN 2319 - 9202 )     New DOI : 10.32804/CASIRJ

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आत्मा का लक्षण : जैनाचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के मत में

    1 Author(s):  KHUSHBU KUMARI JAIN

Vol -  5, Issue- 5 ,         Page(s) : 48 - 51  (2014 ) DOI : https://doi.org/10.32804/CASIRJ

Abstract

पारम्परिक भारतीय दार्शनिक चिन्तना में सभी दर्शनों का मूल वर्ण्य-विषय न्यूनाधिक परिमाण में ‘आत्म-तत्त्व’ का लक्षण एवं उसके स्वरूप का विवेचन करना रहा है। सभी दर्शनों ने अपने मूल दार्शनिक सिद्धांतों के परिपे्रक्ष्य में ‘आत्मा’ को लक्षणबद्ध किया। तद्वत्‌ ही आद्य जैनाचार्य कुन्दकुन्दस्वामी ने आत्मा का लक्षण ‘उपयोगमय’ किया। ‘उपयोग’ और ‘आत्मा’ में गुण-गुणी सम्बन्ध है। ‘उपयोग’ गुण है एवं ‘आत्मा’ गुणी।

  1. जीवो उवओगमओ, उवओगो णाण दंसणो होदि। णाणुवओगो दुविहो, सहावणाणं विहावणाणं ति।। 10 केवलमिंदियरहिदं, असहायं तं सहावणाणं ति। सण्णादि दरवियप्पे, विहावणाणं हवे दुविहं।। 11 सण्णाणं चदुभेयं, मदि सुद  ओही तहेव मणपज्जं। अण्णाणं तिवियप्पं, मदियादि भेददो चेव।। 12 नियमसार, कुन्दकुन्दाचार्य, कुन्दकुन्दभारती, नई दिल्ली, 1991, पृ.सं. 5 
  2.  जीवो परिणमदि जदा सुहेण वा असुहेण वा सुहो असुहो। सु(ेण तहा सु(ो हवदि हि परिणाम सब्भावो।। 9 ‘प्रवचनसार’, कुन्दकुन्दाचार्य, अनेकान्त विद्वत् परिषद्, लोहारिया, राजस्थान, पृ.सं. 19
  3.  ण वियप्पदि णणादो णाणी णणाणि होंति णेगाणि। तम्हा तु विस्सरुवं भणियं दवियत्ति णाणीहि।। 43 मदिणाणं पुण तिविहं उवलब्ध्ी भावणं च उवओगो। तह एव चदुवियप्पं दंसणपुव्वं हवदि णाणं।। 44 सुदणाणं पुण णाणी भणंति ल(ि य भावणा चेव। उवओगणयवियप्पं णाणेण य वत्थु अत्थस्स।। 45 अविभत्तमणण्णत्तं दव्वगुणाणं विभत्तयण्णत्तं। णेच्छंति णिच्चयण्हू तव्विवरीदं हि वा तेसिं।। 51 ववदेसा संठाणा संखा विसया य होंति ते बहुगा। ते तेसिमणण्णत्ते अण्णत्ते चावि विज्जंते।। 52 प×चास्तिकाय, कुन्दकुन्दाचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं. 78-93 
  4.  णाणं अप्पत्ति मदं वट्टðदि णाणं विणा ण अप्पाणं। तम्हा णाणं अप्पा, अप्पा णाणं वा अण्णं वा।। 27 प्रवचनसार, कुन्दकुन्दाचार्य, अनेकान्त विद्वत् परिषद्, लोहारिया, राजस्थान
  5. णाणं णेय णिमित्तं केवलणाणं ण होदि सुदणाणं। णेयं केवलणाणं णाणाणाणं च णत्थि केवलिणो।। 48 प×चास्तिकाय, कुन्दकुन्दाचार्य भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं. 82
  6.    उपयोगो लक्षणं। तत्त्वार्थ सूत्रा, उमा स्वामी, श्री श्रुतविद्या प्रकाशन, पृ.सं. 44

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