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 ( Online- ISSN 2319 - 9202 )     New DOI : 10.32804/CASIRJ

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पृथिवी संरक्षण विषयक वैदिक दृष्टि

    1 Author(s):  RAKESH KUMAR PRACHTA

Vol -  5, Issue- 12 ,         Page(s) : 172 - 176  (2014 ) DOI : https://doi.org/10.32804/CASIRJ

Abstract

पृथिवी शब्द ‘‘पृथु विस्तारे’’ से बना है। अर्थात् जो समुद्र, नदी, नाले, झरने आदि नाना प्रकार के जलाशयों को धारण किये हुए है। जिस पर नाना प्रकार के कृषि कार्य किये जाते हैैं। जिस पर यह मानव जन्म लेकर सम्पूर्ण जीवन पर्यन्त अनेकानेक कार्यों को सम्पन्न करते हुए अपने जीवन को यापन करता है। सारे संसार का भरण-पोषण करने वाली यह पृथिवी ही सब बहुमूल्य धन-सम्पत्तियों का अपार भण्डार है। स्वर्ण आदि धातुओं को अपने गर्भ में धारण करने वाली और सम्पूर्ण संसार को अपने ऊपर बसाने वाली है। पृथिवी माता के समान पुत्रों का पालन करने वाली है। यह पृथिवी हमारे शरीर की भांति है, जिस प्रकार शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है उसी प्रकार इस पृथिवी का स्वस्थ एवं निर्मल होना परम आवश्यक है।

  1. माहिर्भूमा पृदाकुर्नमस्त आतानानर्वा प्रेहि। घृतस्य कुल्या उप ऋतस्य पथ्या अनु।।यजु0।।6/12।।
  2. यस्यां समुद्र उतसिन्धु रापो यस्यामन्नं कृष्टयः सबंभूवुः। यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत् सा नो भूमिः पूर्व पेये दधातु।।अथर्व।।12/1/3।।
  3.  तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतम् जीवेम शरदः शतम् श्रृणुयाम  शरदः शतम् प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम् भूयश्च शरदः शतात्।।
  4. यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।।
  5. पदार्थ विज्ञान
  6. आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद् रपः। त्वं हि विश्व भेषज देवानां दूत ईयसे।।अथर्व0।। 4/13/3।।
  7. सर्वो वै तत्र जीवति गौरश्वः पुरूषः पशुः। यत्रेदं ब्रह्म क्रियते परिधिर्जीवनाय कम्।।अथर्व0।। 8/2/25।।
  8. अग्निस्तिग्मेन शोचिषा यासद्विश्वं न्यत्रिणम्। अग्निर्नो वनते रयिम।।यजु0 17/16।।, ऋग्0 6/16/28।। अग्नी रक्षांसि सेधति शुक्र शोचिरमत्र्यः। शुचिः पावक ईड्यः।।ऋग्0 7/15/10
  9. प्राग्नये विश्वशुचे धियन्धेऽसुरघ्ने मन्म धीतिं भरध्वम्। भरे हविर्न बर्हिषि प्रीणानो वैश्वानराय यतये यतीनाम्।।ऋग0 7/13/1
  10. अग्नी रक्षांसि सेधति शुक्र शोचिर मत्र्यः। शुचिः पावक ईड्यः।।अथर्व0।।8/3/26 उत ब्रुवन्तु जन्तव उदग्निर्वृत्र हाजनि। धन×जयो रणे रर्णे।।ऋग0।। 1/74/3
  11.  समानमेतदुदकमुच्चैत्यव चाहभिः। भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नयः।।ऋग्0।।1/164/51
  12. शतपवित्राः स्वधया मदन्तीर्देवीर्देवानामपि यन्ति पाथः। ता इन्द्रस्य न मिनन्ति व्रतानि सिन्धुभ्यो हण्यं घृतवज्जुहोत।।ऋग0।। 7/47/3।। अपो देवीरूप हृये यत्र गावः पिबन्ति नः। सिन्धुभ्यः कत्र्वं हविः।।अथर्व0।।1/4/3।।
  13. ऊर्क च मे सूनृता च मे पयश्च मे रसश्च मे घृतं च मे मधु च मे सग्धिश्य मे सपीतिश्च मे कृषिश्च में वृष्टिश्च मे जैत्रं च म औद्भिद्यं च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्।।यजु0।। 18/9।।
  14. आयुर्यज्ञेन कल्पतां प्राणो यज्ञेन कल्पतां चक्षुर्यज्ञेन कल्पतां श्रोत्रं यज्ञेन कल्पतां पृष्ठ यज्ञेन कल्पतां यज्ञो यज्ञेन कल्पताम्।। प्रजापतेः प्रजा अभूम स्वर्देवा आगन्माऽमृता अभूम।।यजु0।। 9/21।।
  15. यजुर्वेद।।18/1-29।।

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