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 ( Online- ISSN 2319 - 9202 )     New DOI : 10.32804/CASIRJ

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मधुमती में प्रकाशित कहानियों में आर्थिक असमानताः विविध रूप

    1 Author(s):  DEEPIKA GEVA

Vol -  10, Issue- 3 ,         Page(s) : 47 - 53  (2019 ) DOI : https://doi.org/10.32804/CASIRJ

Abstract

व्यक्ति का सर्वांगीण विकास सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक के साथ-साथ आर्थिक स्तर पर भी माना जाता है। मनुष्य के अस्तित्व की बात जहाँ आती है उसे अपने आपको स्थापित करने के लिए अधिकांशतः आर्थिक रूप से मजबूत होना आवश्यक है। ताकि अपने आपको किसी के सामने हीनतर न समझें ऐसे ही सामाजिक परिदृश्य में आर्थिक यथार्थवाद की महत्ती भूमिका को समकालीन कहानीकारों ने अपनी कहानियों के माध्यम से वर्णित किया है। समकालीन कहानियों में वर्ण-व्यवस्था, भूख, बेकारी, निर्धनता तथा पूंजीवाद जैसी अनेक समस्याओं को जहाँ उठाया है, वहीं व्यक्ति व समाज के मध्य आपसी सम्बन्धों को भी आर्थिक रूप से केन्द्र बिन्दु बनाकर वर्णित किया गया है। प्रमुख रूप से व्यक्ति के अस्तित्व व विकास के लिए अर्थ सम्बन्धी विभिन्न तत्त्वों के साथ उसका सहयोजन व तारतम्यता का होना आवश्यक है। इसलिए समकालीन कहानीकारों का पक्ष वैचारिकतावादी व मानवतावादी अधिक रहा है।

1. (मधुमती पत्रिका, अंक-जनवरी-2004, भूख, मेजर रतन जागिड़, पृ॰ स॰ 48)
2. (मधुमती,- अंक 2004, जनवरी, भूख, मेजर रतन जागिड़ पृ॰ स॰-49)
3. (कहानीकार भगवती प्रसाद वाजपेयी; संदवेदना और शिल्प; लेखक डाॅ॰ गोविन्द लाल छाबड़ा, डाॅ॰ गौतम, पृ॰ 51)
4. (‘मधुमति’ पत्रिका; जून 2004, सपनों का पिंजरा, डाॅ॰ सावित्री डगा, प्र॰स॰ 86-87)
5. (मधुमती पत्रिका: अप्रेल 2002, निर्मल, हबीब कैफी, प्र॰सं॰ 59)
6. (आधुनिक हिन्दी कहानी में वर्णित सामाजिक यथार्थ: डाॅ॰ ज्ञान चन्द शर्मा, प्र॰ 117)
7. (मधुमती पत्रिकाः मई 2009 अहसास, विमला भण्डारी, पृ॰ 58)
8. (वही, पृ॰ 59)
9. (हिन्दी कहानीः दो दशक - डाॅ॰ सुरेश धींगड़ा, पृ॰ 61)
10. (मधुमति पत्रिकाः मई, 2009, अहसास, विमला भण्डारी, पृ॰ सं॰ 60)
11. (मानसरोवरः भाग ...., पे्रमचन्द, पृ॰ 140)
12. (मधुमती जुलाई 2003, खोज, हरदर्शन सहगल, पृ॰ सं. 73)
13. (अन्य कहानियाँ, रत्नकुमार साम्भरिया, पृ॰ सं॰ 114)
14. (हिन्दी उपन्यासः सामाजिक सन्दर्भ डाॅ॰ बालकृष्ण गुप्त, पृ॰ सं. 64)

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