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 ( Online- ISSN 2319 - 9202 )     New DOI : 10.32804/CASIRJ

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प्रारम्भिक स्तर पर अध्ययनरत भारतीय बालक की उभरती हुई आवश्यकताएँ

    1 Author(s):  DR. KAMLESH SANDHU

Vol -  6, Issue- 2 ,         Page(s) : 24 - 28  (2015 ) DOI : https://doi.org/10.32804/CASIRJ

Abstract

बालक का जब भी पृथ्वी पर पदार्पण होता है, तभी से वह सृष्टि की एक सम्पूर्ण इकाई होता है। प्रकृति से उसे जो नैसर्गिक रूप में प्राप्त होता है। उसे बाहर से कुछ जमा करके अथवा घटा करके उसकी प्रकृत क्षमताओं को कम या अधिक नहीं किया जा सकता, किन्तु प्रायः प्रत्येक बालक को प्रकृति ने इतना कुछ दिया होता है कि मनुष्य उसका सही प्रयोग करके, उचित वातावरण उपलब्ध कराकर उस सम्पूर्ण इकाई को स्वयं के समाज व राष्ट्र के लिए उपयोगी इकाई में बदल सकता है। इस विषय के अध्ययन के पश्चात् पत्र-प्रस्तुत कत्र्री का यह मानना है कि बालक न तो शिक्षा संस्थानों व शिक्षकों का उपकरण है और न ही उनके रहमोकरम पर निर्भर निरीह जीव है। इस प्रकार का मत रखने वाले समुदाय को नकारने व उनके अभिमत से असहमत होने के साधन भी कुदरत ने उसे उपलब्ध कराए हैं। जो नकारात्मक दृष्टिकोण पनपने के कारण बहुधा राष्ट्र व समाज के लिए घातक सिद्ध होते हैं।

1. ओषो ’भारत एक अनूठी संपदा’ पृ0 126-127
2 ’भक्तराम कृत संत गरीबदास का जीवन चरित, पृ0 1-5
3. नितानन्द की वाणी-’भोलादास कृत प्रज्ञाचक्षु सत्य सिद्धान्त‘ पृ0  6-11
4. ओशो‘ मन लागो यार फकीरी में’ कबीर बाणी, पृ0  36
5. भक्त राम ’जैतराम की वाणी‘ पृ0 12-16
6 ’शम्भू-भजन माला’ पृ0 18
7. ’साधुराम विचार तरंग भाग’-1 पृ0 54
8. ब्रह्मानंद पचासा, ब्रह्मविचार (संपादित स्वामी जगदीष्वरानंद जी) पृ0 52-53

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