International Research Journal of Commerce , Arts and Science
( Online- ISSN 2319 - 9202 ) New DOI : 10.32804/CASIRJ
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वैदिक काल से अब तक नारी का स्थान
1 Author(s): RAKHI VERMA
Vol - 6, Issue- 2 , Page(s) : 163 - 166 (2015 ) DOI : https://doi.org/10.32804/CASIRJ
नारी वह होती है जिसके बिना सम्पूर्ण विश्व सारशून्य है। वैदिक साहित्य में यह बताया गया है कि बेटी भी बेटे के समान ही माता-पिता के अंगो से उत्पन्न हुई है। पिता को पुत्र तथा पुत्री में कोई भेदभाव नही रखना चाहिए और दोनों का समान स्थान होना चाहिए। नारी कोमलता की सूचक होती है। पिता के घर विवाह से पहले रहती है फिर विवाह के बाद अपने ससुराल में स्वामिनी बनती है। स्त्री या पुरुष दोनों प्रकार की सन्तानों में कोई भेदभाव न रखकर दोनों को ही सौभाग्यपूर्ण समझना और यदि पिता का पुत्र-प्राप्ति का सौभाग्य न मिले तो फिर पुत्री को ही वह सारे अधिकार दे देने चाहिए जो पुत्र के लिए है अर्थात् पुत्र् के लिए है अर्थात् पुत्री पुत्र से कम नहीं है ऐसा वैदिक साहित्य में बताया है।