काव्य में दोष की स्थिति एवं काव्यशास्त्रीय दोषचिन्तन की आधारभूमि
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Author(s):
JORAWAR SINGH
Vol - 6, Issue- 1 ,
Page(s) : 215 - 223
(2015 )
DOI : https://doi.org/10.32804/CASIRJ
Abstract
मनुष्य स्वभावतः अल्पज्ञ है। अतः उसकी रचनाओं में दोष का रह जाना स्वाभाविक ही है। लेकिन इस अल्पज्ञता का यह अर्थ कदापि नहीं हैं कि व्यक्ति को दोषों के परिहार में प्रयत्न नहीं करना चाहिए। एक अबोध बालक के मुख से निकलती हुई तुतलाती वाणी भले ही चित्त को हरती हो, परन्तु यही जब किसी युवा के मुख से निकलती है तो उसे उपहास का पात्र बना देती है। बच्चा जब घुटनों के बल अथवा सरक-सरक कर चलता है तो माता का मन खिल उठता है परन्तु अगर किसी माता के युवा पुत्र की यह स्थिति हो तो वह कारुण्य के भाव को उत्पन्न कर माँ के हृदय को व्याकुल बना देती है। सारांशतः यही कहा जा सकता है कि दोष चाहे शारीरिक हो अथवा मानसिक उसका परिहार अवश्य करना चाहिए। दोष परिहार की इसी विधि का नाम ‘शिक्षण’ है।
- महाभाष्यम्, पतञ्जलि: व्या. युधिष्ठिर मीमांसक, पस्पशाह्निक, पृ.सं. 22 पर उद्धृत
- काव्यालङ्कार, भामह (1/11)
- वही, ‘कुकवित्वं पुनः साक्षान्मृतिमाहुर्मनीषिणः।’ (1/12)
- काव्यादर्श, दण्डी: ‘दुष्प्रयुक्ता पुनर्गोत्वं प्रयोक्तुः सैव शंसति।’ (1/6)
- वही, ‘तदल्पमपि नोपेक्ष्यं काव्ये दुष्टं कथंचन। स्याद् वपुः सुन्दरमपिश्वित्रेणैकेन दुर्भगम्।’ (1/7)
- काव्यालङ्कारसूत्र, वामन: ‘स दोषगुणालङ्कारहानादानाभ्याम्।’ (1/1/3)
- काव्यालङ्कारसूत्र, रुद्रट: ‘क्षोदक्षममक्षूणं सुमतिर्वाक्यं प्रयुंजीत।’ (2/8)
- वही, 1/14 की टीका
- सरस्वतीकण्ठाभरण, भोज: ‘निर्दोषं गुणवत्काव्यम्।’ (1/2)
- काव्यप्रकाश, मम्मट: ‘तददौषो शब्दार्थौ सगुणावनलङ्कती पुनः क्वापि।’ (1/1), पृ.सं. 19
- काव्यानुशासन, हेमचन्द्र: ‘अदोषौ सगुणौ सालङ्कारौ च शब्दार्थौ काव्यम्।’ (1/11)
- चन्द्रालोक, जयदेव: ‘निर्दोषा सलक्षणवती सरीतिर्गुणभूषणा।
- सालङ्काररसानेकवृत्तिर्वाक्काव्यनामभाक्।’ (1/7)
- नाट्यशास्त्र, भरत: ‘न हि किंचिद् गुणहीनं दोषैः परिवर्जितं न वा किंचित्।
- तस्मान्नाट्यप्रकृतौ दोषा नात्यर्थतो ग्राह्याः।’ (27/47)
- ध्वन्यालोक, आनन्दवर्धन: ‘तत्तु सूक्तिसहस्रद्योतितात्मनां महात्मनां दोषोद्घोषणमात्मन एव दूषणं भवति।’ (3/14 की वृत्ति)
- चतुर्वेदी, ब्रजमोहन: महिमभट्ट, पृ.सं. 299 पर उद्धृत
- व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट, ‘तानिदानीमखिलान् खला इव व्याख्यास्यामः।’ (द्वितीय विमर्श, पृ.स. 183)
- वही, ‘पौरोभाग्यमभाग्यभाजनजनसेव्यंमयाङ्गीकृतम्।’ (द्वितीय विमर्श, श्लोक 1)
- व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: तृतीय विमर्श, पृ.सं. 480
- वही, तृतीय विमर्श, पृ.सं. 480
- वही, तृतीय विमर्श, पृ.सं. 235
- साहित्यदर्पण, विश्वनाथ: ‘किञ्च एवं काव्यं प्रविरलविषयं निर्विषयं वा स्यात् सर्वथा निर्दोषस्यैकान्तमसंभवात्’ (प्रथम परिच्छेद, वृत्ति भाग, पृ.सं. 9)
- व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: ‘छात्राभ्यर्थनया ततोऽद्य सहसैवोत्सृज्य मार्गं सताम्।’ (द्वितीय विमर्श, श्लोक 1)
- व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: ‘स्वकृतिष्वयन्त्रितः कथमनुशिष्यादन्यमयमिति न वाच्यम्।
- वारयति भिषगपथ्यादितरान् स्वयमाचरन्नपि तत्।।’ (द्वितीय विमर्श, श्लोक 2)
- कुमारसम्भव, कालिदास: ‘एको हि दोषो गुणसन्निपाते विभातीन्दोः किरणेष्विवाङ्कम्।’ (1/3)
- व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: ‘इदमद्यतनानां च भाविनां चानुशासनम्।
- लेशत: कृतमस्माभिः कविवत्र्मरुरुक्षताम्।।’ (द्वितीय विमर्श, श्लोक 126)
- काव्यालंकार, भामह: ‘एतद् ग्राह्यं सुरभिकुसुमं ग्राम्यमेतन्निधेयं, धत्ते शोभां विरचितमिदं स्थानमस्यैतदस्य।
- मालाकारो रचयति यथा साधु विज्ञाय मालां, योज्यं काव्येष्ववहितधिया तद्वदेवाभिधानम्।।’ (1/59)
- महाभाष्यम्, पतञ्जलि: ‘दुष्टः शब्दः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह।’ (पस्पशाह्निक, पृ.सं. 16)
- वही, ‘रक्षार्थं वेदानामध्येयं व्याकरणम्।’ (पस्पशाह्निक, पृ.सं. 7)
- याज्ञवल्क्य शिक्षा: अध्ययनविधिप्रसङ्ग, कारिका 24
- याज्ञवल्क्य शिक्षा: कारिका 26-28
- वही, कारिका 24-25
- न्यायसूत्र, गौतम: 2/1/57
- काव्यालंकार, भामह: ‘विरुद्वार्थं मतं व्यर्थम्।’ (4/9)
- काव्यलांकर, भामह: ‘सदभिन्नार्थमन्योऽन्यं तदेकार्थं प्रचक्षते।’ (4/12)
- न्यायसूत्र, गौतम: 2/1/58-60
- न्यायसूत्र, गौतम: 5/2/1
- वही, 1/2/19
- वही, ‘निग्रहः खलीकारस्य स्थानम्।’ (1/2/19 पर वृत्ति)
- न्यायसूत्र, गौतम: ‘विवक्षितार्थाप्रतिपादकत्वमेव खलीकारः।’ (1/2/19) पर उद्योतकर का मत
- व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: तृतीय विमर्श, पृ.सं. 480
- नाट्यशास्त्र, भरत: 16/89
- काव्यालंकारसूत्र, वामन: 2/1/8
- काव्यालंकार, भामह: 4/3
- नाट्यशास्त्र, भरत: 16/92
- काव्यालंकार, भामह: 2/39
- काव्यानुशासन, हेमचन्द्र: अध्याय 3, पृ.सं. 164
- चरकसंहिता, विमानस्थान, 8/54
- चरकसंहिता, विमानस्थान, 8/73
- अर्थशास्त्र, कौटिल्य: ‘अकान्तिव्याधितः पुनरुक्तमपशब्दः सम्प्लव इति लेखदोषा।’ः (31/177)
- काव्यालंकार, भामह: 4/9
- वही, 4/22
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