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 ( Online- ISSN 2319 - 9202 )     New DOI : 10.32804/CASIRJ

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महिमभट्टकृत अनौचित्यचिन्तन का वैशिष्ट्य

    1 Author(s):  JORAWAR SINGH

Vol -  5, Issue- 11 ,         Page(s) : 140 - 150  (2014 ) DOI : https://doi.org/10.32804/CASIRJ

Abstract

काव्यशास्त्र के प्रथम उपलब्ध ग्रन्थ नाट्यशास्त्र से ही काव्यगत दोषों का विमर्श प्रारम्भ हो जाता है। भरत से लेकर भोज तक महिमभट्ट से पूर्ववर्ती समस्त काव्यशास्त्रियों ने दोषों का विवेचन किया है। महिमभट्ट ने भी इस परम्परा का निर्वाह किया है। व्यक्तिविवेक के प्रथम विमर्श में ध्वनि के लक्षण पर आक्षेप करने के उपरान्त महिमभट्ट ने ‘शब्दानौचित्यविचार’ नामक द्वितीय विमर्श में काव्यगत दोष अथवा ‘अनौचित्य’ पर विस्तृत एवं व्यापक चिन्तन किया है। इसके विस्तार का अनुमान इसी तथ्य से हो जाता है कि सम्पूर्ण द्वितीय-विमर्श, जो कि ग्रन्थ का सबसे बड़ा विमर्श है, में मात्र पाँच प्रकार के अनौचित्य का वर्णन किया गया है।

  1.    राजेन्द्रन, सी: व्यक्तिविवेक (ए क्रिटिकल स्टडी), अध्याय 6, पृ.सं. 158
  2.    ध्वन्यालोक, आनन्दवर्धन: ‘अनौचित्यादृते नान्यद् रसभङ्गस्य कारणम्।
  3. प्रसिद्धौचित्यबन्धस्तु रसस्योपनिषत्परा।।’ (3/14 की वृत्ति, पृ.सं. 362)
  4.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: ‘एतस्य च विवक्षितरसादिप्रतीतिविघ्नविधायित्वं नाम सामान्यलक्षणम्’ (द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 182)
  5.    वही, ‘इह खलु द्विविधमनौचित्यमुक्तम् - अर्थविषयं शब्दविषयंचेति।’ (द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 179)
  6.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: ‘तत्र विभावानुभावव्यभिचारिणामयथायथं रसेषु यो
  7. विनियोगस्तन्मात्रलक्षणमेकमन्तरङ्गम्।’ (द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 179)
  8.    काव्यालङ्कारसूत्र, वामन: 2/2/9 तथा 2/1/10
  9.    ध्वन्यालोक, आनन्दवर्धन: ‘विरोधिरससम्बन्धिविभावादिपरिग्रहः। विस्तरेणन्वितस्यापि वस्तुनोऽन्यस्य वर्णनम्।’ 
  10. अकाण्ड एव विच्छित्तिरकाण्डे च प्रकाशनम्। परिपोषं गतस्यापि पौनःपुन्येन दीपनम्।।
  11. रसस्य स्याद्विरोधाय वृत्त्यनौचित्यमेव च।।’ (3/18-19) 
  12.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: प्रथम विमर्श, संग्रहश्लोक 91, 93
  13.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: ‘काव्यस्यात्मनि संज्ञिनि रसादिरूपे न कस्यचिद्विमतिः।’ (प्रथम विमर्श, संग्रहश्लोक 26)
  14.    वही, प्रथम विमर्श, संग्रहश्लोक 91-92
  15.    वही, ‘एकमन्तरङ्गमाद्यैरेवोक्तमिति नेह प्रतन्यते।’ (द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 179) 
  16.    वही, पृ.सं. 179
  17.    वही, ‘अपरं पुनर्बहिरङ्गं बहुप्रकारकं सम्भवति। तद्यथा- विधेयाविमर्शः, प्रक्रमभेदः, क्रमभेदः, पौनरुक्त्यं, वाच्यावचनंचेति।’ (द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 179)
  18.    वही, ‘अनेन च वाच्यावचनेन सामथ्र्यादवाच्यवचनमपि सङ्गृहीतं वेदितव्यम्।’ (द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 436)
  19.    राजेन्द्रन, सी.: व्यक्तिविवेक (ए क्रिटिकल स्टडी), श्भ्म कपक दवज ंजजंबी उनबी पउचवतजंदबम जव उमतम हतंउउंजपबंससल वत उमजतपबंस सिंूे पद चवमजतलश्ण् (पृ.सं. 160)
  20.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: तृतीय विमर्श, पृ.सं. 480
  21.    वही, ‘शब्दस्तावच्छब्द्यते विमृश्यतेऽभिधीयतेऽनेनार्थ इति।’ (तृतीय विमर्श, पृ.सं. 480)
  22.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट, पृ.सं. 480
  23.    वही, ‘साधुशब्दस्यापि सामग्रीवैगुण्येनावाचकत्वादपशब्दत्वमुपपन्नं भवति।’ (तृतीय विमर्श, पृ.सं. 480)
  24.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: ‘दुःश्रववृत्तमपि वृत्तस्य शब्दानौचित्यमेव ... केवलं वाचकत्वाश्रयमेतन्न भवतीति न तत्तुल्यकक्ष्यतयोपात्तम्।’ (द्वितीय विमर्श, पृ.स. 181)
  25.    वही, ‘तस्याप्यनुप्रासादेरिव रसानुगुण्येन प्रवृत्तेरिष्टत्वात्।’ (द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 181)
  26.    ध्वन्यालोक, आनन्दवर्धन: ‘रसभावादितात्पर्यमाश्रिय विनिवेशनम्। अलङ्कृतीनां सर्वासामलङ्कारत्वसाधनम्।।’ (2/4 की वृत्ति, पृ.सं. 208)
  27.    ध्वन्यालोक, आनन्दवर्धन: ‘शृङ्गारस्याङ्गिनो यत्नादेकरूपनिबन्धवान्। सर्वेष्वेव प्रभेदेषु नानुप्रासः प्रकाशकः।।
  28. ध्वन्यात्मभूते शृङ्गारे यमकादिनिबन्धनम्। शक्तावपि प्रमादित्वं विप्रलम्भे विशेषतः।।’ (2/14-15)
  29.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: ‘अतएव यमकानुप्रासयोरिव वृत्तस्यापि शब्दालङ्कारत्वमुपगतमस्माभिः।’ (द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 235)
  30.    काव्यालङ्कारसूत्र, वामन: ‘भिन्नवृत्तयतिभ्रष्टविसंधीनि वाक्यानि।’ (2/2/1)
  31.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: ‘द्विविधो हि शब्दः पदवाक्यभेदात्।’ (प्रथम विमर्श, पृ.सं. 27)
  32.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: ‘शब्दस्तावच्छब्द्यते विमृश्यतेऽभिधीयतेऽनेनार्थ इति।’ (तृतीय विमर्श, पृ.सं. 480)
  33.    वाक्यपदीय, भर्तृहरि: ‘द्विधाकैश्चिद् पदं भिन्नं चतुर्धा पंचधापि वा।
  34. अपोद्धृत्यैव वाक्येभ्यः प्रकृतिप्रत्ययादिवत्।।’ (तृतीय काण्ड, पदसमुद्देश, 1)
  35.    काव्यालङ्कार, भामह: ‘गुरोर्लघोश्च वर्णस्य योऽस्थाने रचनाविधिः। तन्न्यूनाधिकता वापि भिन्नवृत्तमिदं यथा।।’ (4/26)
  36.    काव्यालङ्कारसूत्र, वामन: ‘स्वस्माल्लक्षणाच्चयुतं वृत्तं यस्मिँस्तत् स्वलक्षणच्युतं वृत्तं वाक्यं भिन्नवृत्तम्।’ (2/2/1 की वृत्ति)
  37.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: ‘विध्यनुवादभावोऽपि वक्ष्यमाणन्यायेन विशेषणविशेष्यभावतुल्यफल इति तत्रापि तद्वदेव सामासाभावोऽवगन्तव्यः।’ (द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 234)
  38.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 235
  39.    वही, ‘अत्र मौर्वी द्वितीयामिति युक्तः पाठः।’ (द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 235)
  40.    काव्यालङ्कारसूत्र, वामन: ‘स्वलक्षणच्युतवृत्तं भिन्नवृत्तम्।’ (2/2/2)
  41.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: ‘न चैवं वृत्तभङ्गाशङ्का कार्या। तस्य श्रव्यतामात्रलक्षणत्वात्।’ (द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 235) 
  42.    काव्यालङ्कार, भामह: 4/26
  43.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: ‘तस्य श्रव्यतामात्रलक्षणत्वात्। तदपेक्षयैव वसन्ततिलकादाविव गुर्वन्ततानियमस्य सकर्णकैरत्राप्यनादृतत्वात्।।’ (द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 235)
  44.    वही, द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 181
  45.    द्विवेदी, रेवाप्रसाद: व्यक्तिविवेक, हिन्दी व्याख्या, द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 182
  46.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: ‘यत्त्वेच्छब्दविषयं बहुधा परिदृश्यत। तस्य प्रक्रमभेदाद्याः दोषाः पंचैव योनयः।।’ (प्रथम विमर्श, संग्रहश्लोक 94)
  47.    वही, ‘एता अवान्तरभेदभिन्नाः पंचदूषणजातयः।’ (द्वितीय विमर्श, संस्कृत टीका, पृ.सं. 180)
  48.    राजेन्द्रन, सी.: व्यक्तिविवेक (ए क्रिटिकल स्टडी), अध्याय 6, पृ.सं. 161
  49.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 184
  50.    वही, द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 288
  51.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 288
  52.    वही, ‘उद्देश्यप्रतिनिर्देश्यभावाभावविषयस्तु शब्दपुनरुक्तिदोषः।’ (द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 290)
  53.    व्यक्तिविवेक, महिमभट्ट: द्वितीय विमर्श, पृ.स. 432
  54.    वही, द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 196
  55.    वही, द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 292
  56.    वही, द्वितीय विमर्श, संग्रहश्लोक 32
  57.    वही, ‘सर्वनामपरामर्शयोग्यस्यार्थस्य यत्पुनः।
  58. स्वशब्देनाभिधानं सा शब्दस्य पुनरुक्तता।’ (द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 335)
  59.    वही, ‘सर्वनाम्ना परामृष्टस्याऽप्यर्थस्य यत्पुनः स्वशब्देन वचनं सोऽवाच्यावचनं दोषः।’ (द्वितीय विमर्श, पृ.सं. 446)

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