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 ( Online- ISSN 2319 - 9202 )     New DOI : 10.32804/CASIRJ

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साहित्यिक रस का दार्शनिक अवल¨कन

    1 Author(s):  DR. KANCHANMALA PANDIT

Vol -  4, Issue- 1 ,         Page(s) : 171 - 175  (2013 ) DOI : https://doi.org/10.32804/CASIRJ

Abstract

साहित्याशास्त्र में रस का प्रयोग मुख्यतः काव्यास्वाद या काव्यानन्द के लिएहुआ है। आरम्भ में रस का विवेचन नाट्य की दृष्टि से किया गया और वहीं रस मूल भावों की अभिव्यक्ति के लिए अनिवार्य हो गयी। आगे चलकर रस काव्य की आत्मा घोषित हुआ और आज भी काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों मंे सर्वाधिक महत्वपूर्ण बना हुआ है।

1. रस इति कः पदार्थः? उच्यते आस्वाद्ययत्वात्- ना0शा0 6/31
2. स्व- संविदानन्द चर्वण व्यापार-रसनीयरूपो रसः। लोचन-1/4
3. रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति-श्वेताश्वरोपनिषद्
4. क. सुखदुःखात्मको रसः। नाट्यदर्पण-कारिका- 109
ख. चैतन्य आत्मा आनन्दमयः। षिवसूत्र- 1/1
5. श्रीमत्परमषिवस्य परमानन्दमयप्रकाषैकघनस्य एवं विद्यमेव शिवादिधरण्यन्तमखिलं अभेदेनैव स्फुरति। ननु वस्तुतः अन्यत् कि´्चित् ग्राहयं ग्राहकं वा। अपितु परमशिवभट्टारक एवं इत्थं नाना वैचित्र्यसहस्रैः स्फुरति।  -- प्रत्याभिज्ञाहृदय, सूत्र-3
6. स्वेच्छया स्वभित्तौ विश्वमुन्मीलयति। -- प्रत्याभिज्ञाहृदय, सूत्र-2
7. स स्फूरता महासत्ता देशकालाविषेषिणी। सैषा सारतया प्रोक्ता हृदयं परमेष्ठिनः। 
-- तन्त्रालोक- 3/210
8. रम्यं जुगुप्सितमुदारमथापि नीचभुग्रं
प्रसादि गहनं विकृतं च वस्तु।
यद्वाप्यवस्तु कविभावकभाव्यमानं
तन्नास्ति यत्र रसभावमुपैति लोके।। -- दशरूपक - 4/85
9. स्व- भावोऽध्यात्म उच्यते। -गीता
10. आनन्दद्वध्येव ,खल्विमानि भूतानि जायन्ते। आनन्देन जातानि जीवन्ति। आनन्दं प्रत्यन्त्यभिसविषन्ति। आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्। --तैत्तरीयोपनिषद्-3/6
11. प´्चदशी - 11/11
12. प´्चदशी - 15/1
13. प´्चदशी - 11/2
14. ब्रह्मसूत्र- 1/12-19
15. अक्षरं परमं ब्रह्म सनातनमजं विभुम्।
वेदान्तेषु वदन्त्येकं चैतन्यं ज्योतिरीष्वरम्।।
आनन्दस्सहजस्तस्य व्यज्यते स कदाचन।
व्यक्तिः सा तस्य चैतन्य चमत्कार-साध्वया।। --अग्निपुराण, रसनिरूपणाध्यायः-4,2
16. भिध्यतेहृदयग्रन्थिष्छिघ्यन्ते सर्वसंशयाः।
श्रीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिनन्दृष्टे परावरे।। --गीता,
मुण्डकोपनिषद्- 2/2/8

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